चुनावी रण में फंसती सरकार किसानों के सामने विवश

किसानों का आंदोलन समाप्त

किसानों का आंदोलन समाप्त


यूपी व पंजाब के विधानसभा चुनाव सिर पर न होते, तो सरकार न तो अपने कदम पीछे खींचने का फैसला लेती और न ही ये आंदोलन ख़त्म होता। दरअसल, अक्टूबर महीने में संघ और बीजेपी ने यूपी में जो सर्वे कराये थे, उससे जनता का मूड भांप लिया गया था। उसमें साफ कहा गया था कि अगर खेती कानून वापस नहीं लिए गए,तो इसका इतना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है कि यूपी का किला बीजेपी के हाथ से निकल सकता है। तराजू के एक पलड़े पर देश के सबसे बड़े सूबे की सत्ता हो और दूसरे पलड़े पर चंद लोगों को खुश करने की जिद हो,तो स्वाभाविक है कि कोई भी समझदार सियासी दल उस जिद से पीछे हटने में ही अपनी भलाई समझेगा,लिहाज़ा इन कानूनों को लेकर भी उसी नीति पर अमल किया गया कि फिलहाल तो अपने पैर पीछे खींचे जाए।

सरकार की तरफ से चिट्ठी मिलने के बाद संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक में एकमत से इस फैसले का ऐलान किया गया कि फिलहाल आंदोलन स्थगित किया जाए। किसान नेता बलवीर सिंह राजेवाल ने कहा कि देश के किसान अहंकारी सरकार को झुका कर अपने घर जा रहे हैं। राजेवाल ने कहा कि संयुक्त किसान मोर्चा बरकरार रहेगा, साथ ही हर महीने सरकार के वादे को लेकर समीक्षा बैठक होगी। सरकार की जिद को नकारतें हुए अपने अधिकार के प्रति आंदोलन करने वाले किसानों ने आखिरकार सरकार को झुकने पर विवश कर दिया। इतिहास में दर्ज इस आंदोलन की सबसे बड़ी मिशाल उनके एकजुटता को जाती है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित करते हुए तीनों कृषि कानून वापस लेने का ऐलान किया था। उसके बाद किसानों की रजामंदी न होने के कारण सरकार के सामने 6 बड़ी मांगों को रखा गया था। शीतकालीन संसदीय सत्र में किसानों की मांगों को मानते हुए सरकार ने आंदोलन की समाप्ति करवाई है। दरअसल मोदी सरकार के इस निर्णय की विपक्ष ने खंडना करते हुए कहा कि सरकार ने किसानों को 378 दिनों भरमाया है। किसानों की मांगो को पहले भी निस्तारित की जा सकती थी। किसानों की असंतुष्टी को देखते हुए कृषि विल संसद में पास नहीं करवाना चाहिए था। विपक्षी दलों ने कहा कि केंद्र सरकार को ज्ञात होने चाहिए कि संसद में पेश किए जाने से लेकर अब तक का खर्च गैरबुनियादी है।

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