किसान आंदोलन से सरकारों को मिली बड़ी सीख

किसान आंदोलन

किसान आंदोलन

आजादी के बाद से अहब तक पहला ऐसा आदोंलन है जो एकतरफा टिका रहा और जीत हासिल की। सरकार की जिद को नकारतें हुए अपने अधिकार के प्रति आंदोलन करने वाले किसानों ने आखिरकार सरकार को झुकने पर विवश कर दिया। इतिहास में दर्ज इस आंदोलन की सबसे बड़ी मिशाल उनके एकजुटता को जाती है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित करते हुए तीनों कृषि कानून वापस लेने का ऐलान किया था। उसके बाद किसानों की रजामंदी न होने के कारण सरकार के सामने 6 बड़ी मांगों को रखा गया था। शीतकालीन संसदीय सत्र में किसानों की मांगों को मानते हुए सरकार ने आंदोलन की समाप्ति करवाई है। दरअसल मोदी सरकार के इस निर्णय की विपक्ष ने खंडना करते हुए कहा कि सरकार ने किसानों को 378 दिनों भरमाया है। किसानों की मांगो को पहले भी निस्तारित की जा सकती थी। किसानों की असंतुष्टी को देखते हुए कृषि विल संसद में पास नहीं करवाना चाहिए था। विपक्षी दलों ने कहा कि केंद्र सरकार को ज्ञात होने चाहिए कि संसद में पेश किए जाने से लेकर अब तक का खर्च गैरबुनियादी है। उनका मानना है कि सरकार ने अपने शासन काल में बिना सोचे समझे फैसले लिए, जिनका जनता पर कोई समावेश नहीं है। आगामी चुनाव को देखते हुए सरकार ने किसानों के वोटबैंक को कब्जाने की रणनीति चली है। पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश किसान आंदोलन का प्रमुख हिस्सा थे। सरकार को अहसास हो गया था कि जनता बीजेपी का नामोनिशान हटाने में सक्षम रहेगी। इस दायरे को जनता भलीभांति समझ भी रही थी। केंद्र सरकार ने अपना सफाई देते हुए विल के साथ किसानों की 6 मांगों को स्वीकृति कर दिया है। बीते साल 26 नवंबर को प्रारंभ हुआ आंदोलन इस साल शीतकालीन संसदीय सत्र में जाकर समाप्त हुआ है। दिल्ली के आसपास की सीमाओं को किसानों ने पूरी तरह खाली करना शुरु कर दिया है। अधिकांश तंबूओं को उखाड़ लिया गया है। किसान नेताओं ने साफ कर दिया है कि उन्होंने आंदोलन स्थगित किया है, इसे पूरी तरह से खत्म नहीं किया है और अगर सरकार ने वादाखिलाफी की, तो वे दोबारा अपना बोरिया बिस्तर बांधकर राजधानी में डेरा डाल सकते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि किसान एक लंबी लड़ाई जीतकर अपने घरों को लौट रहे हैं। लेकिन इस आंदोलन से सरकार में बैठे नीति-निर्माताओं को भी एक सबक लेना चाहिए।

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