पाकिस्तान के मशहूर पर्यटक स्थल मरी में बर्फ के खौफ का दृश्य चौकानें वाला

पाकिस्तान

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पाकिस्तान के मशहूर पर्यटक स्थल मरी में चंद रोज पहले जो हुआ, वह बर्फ के खौफ का उदाहरण है। हमारे देश में भी खासकर उत्तर भारत के जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में यह बर्फ जीवन की डोर काटती प्रतीत हो रही है। इन सारे इलाकों के बहुतेरे हिस्सों में या तो यातायात ठप है, बिजली-पानी की सप्लाई बाधित है और जिंदगी थमी हुई है। पर बर्फबारी में भी तमाम विकसित देशों में जिंदगी इस तरह नहीं ठहरती। अपवादों को छोड़ दें तो वहां बर्फ हादसों का सबब नहीं बनती। आखिर क्यों बर्फबारी भारत-पाकिस्तान जैसे कुछ एशियाई मुल्कों में इस तरह कहर बरपाती है।

पाकिस्तान के मरी में करीब दो दर्जन जिंदगियां छीन लेने वाली बर्फ यूं ही अनहोनी नहीं बन गई। कोरोना काल में अरसे से घरों में बंद असंख्य लोगों (पर्यटकों) को सर्दी में बर्फबारी को करीब से देखने-महसूस करने की चाहत वहां खींच ले गई थी। पर एक रात भारी बर्फबारी के बीच सड़क पर सैकड़ों कारों की मौजूदगी से लगे ट्रैफिक जाम में लोग जहां के तहां ठहर गए। दावा है कि इनमें से बहुत से लोगों को जब होटलों में ठहरने को जगह नहीं मिली, तो कारों में ही रात गुजारने का फैसला उन पर भारी पड़ गया। ज्यादा ठंड और कारों में इंजन चलने से अंदर जमा होने वाली जहरीली गैस कार्बन मोनो-आक्साइड से दो दर्जन लोग मौत के आगोश में खिंचे चले गए। यह घटना और संबंधित आंकड़े केवल एक तथ्य हैं, लेकिन इससे ज्यादा जो बातें सामने आ रही हैं, उनमें मानवीय संवेदनाओं के बर्फ से भी ज्यादा ठंडे हो जाने की सच्चाई सामने निकलकर आती है। बताते हैं कि ट्रैफिक जाम में फंसे लोगों ने बेइंतहा ठंड और भीषण बर्फबारी के बीच होटलों की बजाय कारों में ही रात बिताने का फैसला इसलिए किया, क्योंकि ज्यादातर होटल वालों ने एक रात के लिए कमरे का किराया 50 से 70 हजार पाकिस्तानी रुपये कर दिया था। यही नहीं, बर्फ में फंसी कार को खींचकर बाहर निकालने और सुरक्षित जगह पर ले जाने के लिए लोग न्यूनतम पांच हजार रुपया मांग रहे थे। सरकार और प्रशासन की नाकामी दोहरी थी। एक तरफ तो सरकार का मौसम विभाग यह अनुमान नहीं लगा पाया कि कुछ ही घंटों में वहां इतनी ज्यादा बर्फबारी हो जाएगी। यदि यह अनुमान होता तो पर्यटकों को समय रहते सचेत किया जा सकता था।  

  दिसंबर-जनवरी की सर्दी में ठिठुरते जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड के देश से कटे हुए बहुतेरे इलाके इस दौरान बिजली-पानी और रसद की भीषण कमी से जूझते हैं। यहां अक्सर न केवल पर्यटक फंस जाते हैं, बल्कि स्थानीय बाशिंदे भी कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। शिमला-मनाली तक में बिजली-पानी की आपूर्ति बाधित है। दो जनवरी को मनाली में 14 घंटे तक ब्लैक आउट (बिजली कटना) रहा। बर्फबारी के कारण मनाली की बिजली की मुख्य लाइन प्रभावित हुई और आम लोगों के साथ मनाली घूमने आए हजारों पर्यटकों को परेशानी का सामना करना पड़ा। मनाली हो या शिमला, बर्फबारी प्रशासन की व्यवस्थाओं की पोल भी खोलती रही है।  

कायदे से तो बर्फबारी के दौरान इन पर्यटक स्थलों को चाक-चौबंद रहना और दिखना चाहिए, लेकिन इसके उलट अगर ये कूड़े और कुप्रबंधन के शिकार दिख रहे हैं, तो हमें दुनिया की उन तमाम पर्यटन नगरियों से काफी कुछ सीखने की जरूरत है, जहां कायम रहने वाली व्यवस्था के उदाहरण हम खुद देते हैं। ये चीजें दर्शाती हैं कि हमारे देश में बर्फबारी से पैदा होने वाली समस्याओं से निपटने की जो व्यवस्थाएं बननी चाहिए थीं, वे ज्यादातर पर्वतीय इलाकों में नदारद हैं।

  खास तौर से जम्मू-कश्मीर को देश से जोडऩे वाले 300 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय राजमार्ग पर वाहनों की आवाजाही रुक जाती है और हजारों ट्रक एक के पीछे एक खड़े हो जाते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग बंद होने या उनके रुक-रुक कर चलने की वजह से रसद की सप्लाई करने वाले ट्रकों का आवाजाही थम जाती है, जिससे पर्वतीय राज्यों में राशन-पानी का घोर संकट पैदा हो जाता है। विकसित देशों में बर्फबारी के दौरान ज्यादातर समय प्रमुख हाइवे हर हाल हाल में चालू रखे जाते हैं, क्योंकि वहां इसकी अहमियत समझी जाती है कि रास्तों के बंद हो जाने का मतलब है, देश का थम जाना। पर हमारे देश में बर्फबारी के दौरान राजमार्गों को बंद करना बेहद आम है।  

पर्यावरण त्रासदियों पर बहस-मुहाबिसे करने वाला समाज अगर प्रशासन, सरकार के कुप्रबंधों और जनता के लालच व असंवेदनशीलता पर भी जरा नजर डालें, तो शायद बर्फबारी के दौरान उपजने वाले संकटों का कुछ समाधान संभव है। बेशक भारत मोटे तौर पर एक गर्म मुल्क है, लेकिन उत्तर भारत की बर्फबारी की एक समस्या के रूप में अनदेखी किसी भी नजरिये से ठीक नहीं कही जा सकती है। बर्फ को अगर करीब से देखना रोमांचक है, आह्लादकारी है तो उसकी परतों में मौजूद संकटों और दर्द की भी कहीं कोई सुनवाई तो होनी ही चाहिए।

  बर्फबारी का एक सर्द पहलू पर्वतीय इलाकों में हिमस्खलन (एवलांच) की घटनाओं से जुड़ा है। भारतीय सेना लद्दाख समेत जम्मू-कश्मीर के अलावा जिन अन्य उत्तरी राज्यों में तैनात है, वहां एवलांच एक खौफ का पर्याय माने जाते हैं। तीन साल पहले लद्दाख के खार्दुंग-ला इलाके में 18 जनवरी 2019 को अचानक हुए हिमस्खलन में इलाके से गुजर रहे सेना के दो ट्रक फंस गए थे। हादसे में करीब आधा दर्जन सैनिकों ने जान गंवाई थी। हालांकि तब सियाचिन के बेस कैंप से आधुनिक उपकरणों से लैस स्पेशल एवलांच रेस्क्यू पैंथर्स टीम ने तत्काल राहत कार्य चलाया था, लेकिन तब मांग उठी थी कि सेना को बर्फबारी के दौरान बेहद दुर्गम बर्फीले स्थानों से वापस बुला लेना चाहिए। फरवरी 2016 में सियाचिन स्थित सोनम पोस्ट पर एक भारतीय चौकी एवलांच की चपेट में आई तो मद्रास रेजिमेंट के नौ सैनिक की जान चली गई। हालांकि इसी हादसे में छह दिन बाद कई फुट बर्फ में धंसे सैनिक लांस नायक हनुमनथप्पा जीवित निकाले गए थे, लेकिन कोमा में चले जाने के कारण अंतत: उन्हें बचाया नहीं जा सका। करीब एक दशक के दौरान हुए हादसों के मद्देनजर यह राय बनती है कि बर्फ और हिमस्खलन सेना और पर्यटकों के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन गई है।

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