इस्‍लामिक आतंकवाद बड़ी चुनौती

डॉ. अनिल निगम
अफगानिस्‍तान की राजधानी काबुल में आईएसआईएस का नरसंहार और
जैश-ए-मोहम्‍मद के प्रमुख मसूद अजहर ने जिस तरीके से तालिबान नेता गनी बरादर सहित अनेक नेताओं से भेंटकर कश्मीर में आतंक फैलाने के लिए मदद मांगी है, उससे यह साबित हो गया है कि इस्‍लामिक आतंकवाद भारत सहित संपूर्ण विश्‍व शांति के लिए बहुत बड़ा खतरा है। आज इस्‍लामिक आतंकवाद ने विकराल रूप इसलिए धारण कर लिया है क्‍योंकि पश्चिम के शक्तिशाली देशों ने एशिया और अफ्रीका में पनप रहे इस आतंकवाद के प्रति हमेशा उपेक्षित रवैया अपनाया है। उनके इसी रवैया का नतीजा है कि आज अमेरिका, फ्रांस, कनाडा, आस्‍ट्रेलिया, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे देश इसकी चपेट में आ चुके हैं।
ध्‍यातव्‍य है कि भारत पिछले लगभग साढ़े तीन दशकों से आतंकवाद का दंश झेल रहा है। देश में आतंकवाद को पोषित और पल्‍लवित करने का काम पाकिस्तान करता रहा है। भारत अंतरराष्‍ट्रीय मंचों पर कई मर्तबा यह साबित कर चुका है कि उसके यहां आतंकवाद को पाकिस्‍तान ही प्रायोजित कर रहा है। वहां पर अनेक आतंकावादी शिविर चल रहे हैं। उल्‍लेखनीय है कि विश्व के अनेक देश-ब्रिटेन, स्पेन, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी के अलावा अफ़ग़ानिस्तान, बंगलादेश आदि देश इस्‍लामिक आतंकवाद की चपेट में आ चुके हैं।

हालांकि अलकायदा द्वारा 9/11 के हमले के बाद अमेरिका सतर्क हो गया और आंतरिक सुरक्षा के इंतजाम कड़े कर लिए ताकि उसके देश में कोई बड़ी घटना न घटे। लेकिन अफसोसजनक बात यह रही कि उसने इस अंतरराष्‍ट्रीय समस्‍या पर अंकुश लगाने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए। उसने पाकिस्‍तान और अन्‍य देशों में चल रहे आतंकवादी शिविरों को बंद कराने के लिए भी कोई गंभीर प्रयास नहीं किए। इसका नतीजा यह हुआ कि भारत में न केवल 26/11 जैसी घटना घटी, बल्कि आतंकवादियों ने कनाडा, फ्रांस, आस्‍ट्रेलिया, जर्मनी और ब्रिटेन में बड़ी आतंकी घटनाओं को अंजाम देकर वैश्विक स्‍तर पर दहशत का माहौल पैदा कर दिया।

तालिबान आतंकियों ने अफगानिस्‍तान में तो आईएसआईएस ने इराक और सीरिया देशों में मानवता को शर्मसार करते हुए जमकर हत्‍याएं कीं। इन आतंकियों के निशाने पर प्राय: गैर मुसलमान होते हैं, लेकिन ऐसे अभियानों के दौरान अनेक मुस्लिम भी मारे जाते हैं। इराक और सीरिया में तो अल्पसंख्यकों अथवा गैर इस्‍लामिक महिलाओं एवं बच्चों को बंधक बनाकर शादी के लिए मजबूर किया। अगर पुरुषों ने इस्लाम कबूल कर लिया तो उनको छोड़ दिया, बाकी को मार दिया।

अल कायदा, तालिबान, आईएसआईएस, बोको हराम, हमास, लश्‍करे तोइबा, हिजबुल मुजाहिद्दी, जम्‍मू कश्‍मीर इस्‍लामिक फ्रंट आदि संगठन एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। लगभग हर देश में ये संगठन कम्‍युनिस्‍ट विचाराधारा की आड़ में पल बढ़ रहे हैं। ये राष्‍ट्र और समाज के विकास में बदनुमा दाग हैं।

विडंबना यह है कि अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद का प्रमुख मौलाना मसूद अजहर अगस्त के तीसरे सप्ताह में कंधार पहुंच गया। उसने मुल्ला अब्दुल गनी बरादर सहित तालिबान नेताओं से भेंट की और जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए तालिबान का समर्थन मांगा।

मसूद अजहर 15 अगस्त को काबुल पर कब्जा करने के बाद तालिबान की ‘जीत’ पर पहले ही खुशी जता चुका है।

तालिबान भारतीय महाद्वीप के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। विश्‍व के सशक्‍त देशों को इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, चीन और फ्रांस इस समय संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ की सुरक्षा परिषद के सदस्‍य हैं। इसीलिए इनको महाशक्तियों (पी 5) के रूप में जाना जाता है। चीन तालिबान को लेकर सकारात्‍मक है। चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने कहा कि वे अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण और विकास में चीन की भागीदारी की आशा करते हैं। चीन स्वतंत्र रूप से अपने भाग्य का निर्धारण करने के अफगान लोगों के अधिकार का सम्मान करता है। वह अफगानिस्तान के साथ मैत्रीपूर्ण और सहकारी संबंध विकसित करने और इसे जारी रखने के लिए तैयार है।

हालांकि चीन ने संयुक्‍त राष्‍ट्र सुरक्षा परिषद में अधिक सतर्क रुख अपनाया, लेकिन ऐसा आभास होता है कि बीजिंग आर्थिक रियायतों और अफगानिस्तान की खनिज संपदा तक पहुंचने के बदले तालिबान को सिर आंखों पर बैठाने को तैयार है।
रूस तालिबानों का स्वागत करने वाला दूसरा पी 5 देश था। लंबे समय से तालिबान का समर्थन करने वाले रूस के विशेष दूत जमीर काबुलोव ने बताया कि उनका देश पहले से ही तालिबान से बात कर रहा था। लेकिन गौरतलब यह है कि चीन और रूस ने पिछली तालिबान व्यवस्था को मान्यता नहीं दी थी। उधर ब्रिटेन ने यह कहकर सभी को चौका दिया है कि आवश्‍यक होने पर ब्रिटेन अफगानिस्‍तान में तालिबान के साथ काम करने को तैयार है। यह बात सोलह आने खरी है कि पाकिस्तान तालिबान का लंबे समय से समर्थक रहा है।

विदित है कि अफगानिस्तान के 33 प्रांतों पर तालिबान का कब्जा हो चुका है। काबुल में 26 अगस्‍त को पहला बड़ा आतंकी धमाका हुआ। काबुल हवाई अड्डे के बाहर जमा भीड़ पर हुए आत्मघाती हमले में लगभग 170 से अधिक लोगों की मौत हो गई, जिनमें 13 अमेरिकी सैनिक भी शामिल हैं। इस हमले की जिम्मेदारी आईएसआईए-के ने ली। उसके बाद अमेरिका की तंद्रा टूटी और एक बार फिर बखौला गया है। उसने बदले की कार्रवाई कर आतंकियों से बदला लेने की शुरुआत कर दी है।

लेकिन यहां पर सबसे अहम सवाल यह है कि पश्चिम के सक्षम देशों ने इस इस्‍लामिक आतंकवाद को पहले नजरअंदाज क्‍यों किया? अमेरिका अब तक तंद्रा में क्‍यों रहा? संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ ने इसके खिलाफ कभी ठोस कार्रवाई क्‍यों नहीं की? क्‍या ये पश्चिमी देश सिर्फ इसलिए मौन रहे कि इस्‍लामिक आतंकवाद से सर्वाधिक प्रभावित अफ्रीका और एशिया के देश थे? उनके इसी उदासीन रवैया की वजह से यह समस्‍या विकराल हो चुकी है और विश्‍व शांति के लिए बहुत बड़ा खतरा भी पैदा हो गया है। अब समय आ गया है कि समर्थ देश और संयुक्‍त राष्‍ट्र इस समस्‍या को गंभीरता से लें और इसका सार्थक और सटीक समाधान निकालें ताकि मानव सभ्‍यता को गंभीर संकट से उबारा जा सके।

(लेखक आईआईएमटी न्यूज़ के संपादक हैं।)

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