दहेज ने किया समाजिक तानेबाने को कमजोर

डॉ. अनिल निगम
केरल के राज्‍यपाल मोहम्‍मद आरिफ खान द्वारा दहेज कुप्रथा के खिलाफ एक दिवसीय उपवास करने से भारतीय समाज की इस बुराई पर एक बार फिर बहस शुरू हो गई है। भारत को आजाद हुए 74 वर्ष हो गए हैं, लेकिन दहेज प्रथा भारतीय समाज में एक बदनुमा दाग लगा हुआ है। इसको लेकर आज भी महिलाओं के साथ हिंसा अथवा उनका उत्‍पीड़न किया जाता है। हमारे देश में महिलाओं और पुरुषों के बीच लिंगानुपात-900 : 1000 (वर्ष 2013-15) का अंतर यह बताता है कि महिलाओं को लेकर समाज में आज भी पुरुष प्रधान समाज का नजरिया बहुत अच्‍छा नहीं है। यह भारतीय समाज की ऐसी बुराई है जो एक समृद्ध राष्‍ट्र के निर्माण में बहुत बड़ी बाधा है। हालांकि यह बात सत्‍य है कि भारत में शिक्षा का स्‍तर बढ़ने के साथ इस संबंध में लोगों में जागरूकता आई है, परंतु यह कुप्रथा भारतीय समाज के तानेबाने को कहीं न कहीं कमजोर बना रही है। इसलिए हमें इस समस्‍या का समाधान करने के लिए चिंतन और मंथन करने की सख्‍त जरूरत है।

नीति आयोग के 213-15 के आंकडों के अनुसार, देश की राजधानी दिल्‍ली में लिंगानुपात 869 है। हरियाणा में 831 और उत्‍तराखंड में 844 है। जबकि राजस्‍थान में यह अनुपात 861 है। इन आंकड़ों से यह पता चलता है कि हमारे देश में आज भी लड़कियों की भ्रूण हत्‍या की जा रही है और इस हिंसा के पीछे बहुत बड़ा कारण महिलाओं के विवाह के समय दिया जाने वाला दहेज है।

पौराणिक युग पर दृष्टि डालने पर पता चलता है कि त्रेता युग में भगवान श्रीराम को राजा जनक ने धन-द्रव्य आदि उपहार-स्वरूप भेंट किए थे। इसी प्रकार द्वापर युग मे कंस ने अपनी बहन देवकी को बहुत से धन, वस्त्र आदि उपहार के रूप में भेंट किए थे। हालांकि भारतीय समाज में ऋगवैदिक काल में दहेज प्रथा की कोई मान्यता नहीं थी। अथर्ववेद के अनुसार, उत्तरवैदिक काल में इस प्रथा का प्रचलन वहतु के नाम से शुरू हुआ। इसका स्वरूप वर्तमान दहेज व्यवस्था से पूरी तरह भिन्न था। इस काल में कन्‍या का पिता उसे पति के घर विदा करते समय कुछ उपहार देता था।

मध्य काल में इस वहतु को स्त्रीधन कहा जाने लगा। पिता अपनी इच्छा और यथा शक्ति बेटी को उपहार देता था। उपहार देने के पीछे उद्देश्‍य था कि स्‍त्री धन किसी बुरे समय में लड़की और उसके ससुराल वालों के काम आएगा। लेकिन दहेज का आधुनिक स्वरूप पूरी तरह से बदल चुका है। यह आज बहुत ही विकृत और कलुषित हो चुका है। यह प्रथा एक कुरीति के रूप में हमारे समाज में विकसित हो गई जिसका खामियाजा आज संपूर्ण समाज भुगत रहा है।

आज दिए जाने वाले दहेज की कोई सीमा निर्धारित नहीं है। दहेज कितना और कैसा दिया जाएगा, यह सब निर्भर करता है लड़के की नौकरी, उसके परिवार के समाजिक स्तर, उनके लालच और मांग पर। दहेज प्रथा की कुरीति यह बताती है कि लड़की के गुणों और शिक्षा से बढ़कर दहेज होता है। कई बार इसे लड़के के पालन-पोषण और उसकी पढ़ाई-लिखाई के खर्च के रूप में उगाहा जाता है। अनेक कारणों से दहेज प्रथा की कुरीति समाज से खत्‍म होने का नाम नहीं ले रही है। विभिन्‍न प्रदेशों में शिक्षा का स्‍तर काफी निम्‍न है। महिलाओं को समाज में शारीरिक और मानसिक स्‍तर पर आज भी निम्‍न माना जाता है। शादी-विवाह में दिखावा करने की पुरानी परंपराओं से आज भी लोग अपना मोह भंग नहीं कर पा रहे हैं। यही कारण है कि यह कुप्रथा हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है।

दहेज प्रथा का समाज में काफी प्रतिकूल असर पड़ता है। इसका सबसे प्रतिकूल असर देश के लिंगानुपात पर पड़ा है। कई प्रदेशों में जन्‍म लेने के पूर्व ही कन्‍या भ्रूण की हत्‍या कर दी जाती है। पिछड़ी सोच के चलते शादी में पर्याप्‍त दहेज न मिलने के चलते लड़की की हत्‍या कर दी जाती है अथवा उसका मानसिक और शारीरिक उत्‍पीड़न किया जाता है। पुरुष प्रधान मानसिकता के ही कारण आज भी महिला को समाज में पुरुष के समान दर्जा प्राप्‍त नहीं हो सका है।

अब सवाल यह उठता है कि इस सामाजिक बुराई को महज कानून के बल पर रोका जा सकता है? लेकिन दहेज जैसे अपराध को रोकने के लिए भारत में अनेक कानून हैं। पर इसका नतीजा हमेशा ‘‘ढाक के तीन पात’’ ही रहा है। दहेज प्रतिबंध संबंधी कानून भारत में 20 मई 1961 को लागू हुआ। इस कानून को हमारे देश में लाने का कारण था, महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाना और दहेज को रोकना। दहेज लेने-देन को ही अपराध माना गया। इसमें दहेज की मांग करने के लिए कम से कम पंद्रह हजार का जुर्माना और पांच साल की जेल का प्रावधान है। धारा 498ए के अंर्तगत पति और पति के परिवार द्वारा किए हुए अत्याचार के खिलाफ सज़ा का भी उल्‍लेख है। इसके अलावा वर्ष 2005 में महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून बनाकर इसे रोकने का प्रयास किया गया, पर अफसोस लोगों के मन में कानून का कोई भय नहीं है। समाज में दहेज प्रथा आज भी प्रचलित है और महिलाओं के साथ हिंसा और उत्‍पीड़न की अनेक घटनाएं घटित हो रही हैं। ऐसे में इस कुप्रथा पर केरल के राज्‍यपाल आरिफ मोहम्‍मद खान की चिंता काफी सामयिक और प्रासंगिक है। उन्होंने हाल ही में कहा कि “केरल राज्य के सभी विद्यार्थी यह प्रतिज्ञा लें कि वे कभी ना तो दहेज देंगे, ना लेंगे। उन्हें प्रेरित करने के उद्देश्‍य से उन्‍होंने सभी कुलपतियों से इसके लिए बांड पर साइन कराने की बात कही है। साथ ही उनका यह भी मानना है कि उन्हीं विद्यार्थियों को डिग्री प्रदान की जाए, जिन्होंने इस बांड पर साइन किया हो।”

राज्‍यपाल आरिफ मोहम्‍मद खान की यह चिंता और सुझाव काफी वाजिब है। वास्‍तविकता तो यह है कि दहेज प्रथा की बुराई को कानून और डंडे के बल पर रोकना संभव नहीं है और न ही यह समस्‍या महज साक्षरता दर बढ़ाकर रोकी जा सकती है। इसके लिए समाज के सभी वर्गों को अत्‍यंत जागरूक करने की जरूरत है। इसमें सबसे अहम योगदान शिक्षित युवाओं का ही है। अगर वे मिलकर यह संकल्‍प लें कि इस कुप्रथा का समाज से करना है तो भारतीय समाज न केवल स्‍वस्‍थ समाज होगा, बल्‍कि हम भारत को एक समृद्ध राष्‍ट्र बनाने में अपना सही योगदान कर सकेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं आईआईएमटी न्यूज के संपादक हैं।)

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