चुनावी लोकलुभावन रणनीतियों में फंसा आयोग

चुनाव आयोग

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अनुष्का वर्मा – जैसे-जैसे चुनाव निकट आते हैं,वादों की झड़ी लग जाती हैं। सभी राजनीतिक दलों को सहसा गरीब आम आदमी की याद आने लगती हैं। महिला, युवा, अल्पसंख्यक, झुग्गियों में रहने वाले, अनधिकृत कालोनियों के लोग अहम हो जाते हैं। साढ़े चार साल जिन मतदातओं की अनदेखी हुई, वे अचानक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। वादों में मुफ्त बिजली-पानी,सस्ता अनाज, तेल,गैस,फोन और लैपटाप जैसी हर वह वस्तु समाहित है, जिनसे मतदातओँ का ध्यान आकृष्ट होता है। चुनाव आयोग के पास कई बार ऐसे आवेदन आए है, जिनमें इन वादों पर नियंत्रण की मांग की गई, लेकिन सत्य सही है कि इस संबंध में आयोग की शक्ति सीमित है। वैधानिक तौर पर आयोग इन पर रोक नहीं लगा सकता है।
वादे मूलत: दो प्रकार के होते है। एक, जिनसे लोगों को व्यक्तिगत लाभ हो सकता है और दूसरा, जिनसे समाज का भला होता है। व्यक्तिगत लाभ का अर्थ है किसी के खाते में कुछ राशि डाल देना, जो सीधे तौर पर रिश्र्वत ही है। यहां तक कि पार्टी या उम्मीदवार की तरफ से मतदाता को एक कप चाय पिलाना भी रिश्र्वत ही हैं। ऐसे वादे सत्ताधआरी और विपक्ष दोनों तरफ से किए जाते है। अंतर यही है कि सत्ताधारी दल के पास सरकारी खजाने का नियंत्रण भी होता है।
सब्सिडी का एलान, कीमतों में कटौती नई योजनाँए लाना आदि जैसा घोषणाएं सत्ताधारी दल करते है। राजनीतिक दल चुनाव अयोग की तरफ से आचार सहिता लागू होने से पहले ही ऐसी घोषणाएंओ के लिए जलदबाजी में रहते है। आचार सहिता प्रभावी होने के बाद सरकार नई योजनाओं की घोषणा नही कर सकती है लेकिन घोषणापत्र पर आचार सहिता प्रभावी नही होती । एक –दो-रूपये किलो चावल ,मुफ्त टीवी, लैपटाप, साइकिल समेत सब तरह के वादे घोषणापत्र के माध्यम से किए जाते है। कई बार इन वादों की व्यवहार्यता पर सवाल भी उठता है।

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