कोरोना में महिला का संकट

डॉ वेद व्यथित
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कोरोना महामारी क्या आई सब कुछ लॉकडाउन हो गया। पर सरकार ने इस लॉक डाउन को धीरे-धीरे अनलॉक करना शुरू किया और अनलॉक दो तीन चार पांच बेशक कर दिया पर हमारे कालेज को नहीं खोला वह अब भी बंद ही है। यह स्टूडेंट्स के साथ कितना बड़ा अत्याचार है। इसे सरकार समझ ही नहीं रही है। मास्टर-मास्टरनियों को तो सरकार जब मर्जी बुला लेती है और वे तो अपने साथियों से आराम से मिल ही लेते हैं जिस के कारण उन में उठ रही हिलोरें तो आराम से शांत हो जाती हैं, पर बेचारे स्टूडेंट्स आखिर क्या करें।
आखिर स्टूडेंट्स की भी तो अपनी दिल और मन की कुछ बातें होती हैं जो एक दूसरे को बतानी जरूरी होता है सरकार पता नहीं इन स्टूडेंट्स की परेशानी क्यों नहीं समझ रही है। आखिर छुट्टी भी तो एक दो दिन की ही हो तो मजेदार होती है तो खूब आराम से बीत जाती है खूब देर से सो कर उठो मन मर्जी का नाश्ता बनवाओ और फिर दिन भर खा-पीकर आराम करो क्योंकि पहले तो छुट्टी आती ही सातवें दिन थी, परन्तु अब इतनी लम्बी छुट्टियों से तो घरवाले ही नहीं स्टूडेंट्स भी परेशान हो गए हैं और इन छुट्टियों ने तो कोरोना से भी ज्यादा परेशान कर दिया है। और तो छुट्टियों का पूरा फायदा उठा रहे हैं और इन छुट्टियों में तो ऐसे- ऐसे काम भी करवा रहे हैं जिन का सपनों में भी नहीं
सोचा था। और ऊपर से ताना भी मारते हैं कि कौन सी तेरी पढ़ाई हो रही है। बीस किताब लिए बैठा रहता है। वैसे फोन पर लगा रहता है। पढ़ाई कौन सी भागी जा रही है थोड़ी देर में कर लेना पहले जरूरी काम कर देगा तो क्या हो जायेगा। तुझे कौन सा अभी कालेज जाना है। इस लिए अब उन से कोई बहाना भी नहीं बना सकते हैं और न ही किसी काम के लिए मना ही कर सकते हैं। पर चलो पढ़ाई-लिखाई की तो कोई बात नहीं आजकल तकनीक ने सब कुछ आसान कर दिया है इस लिए कालेज वाले भी ऑन-लाइन पढ़ाई करवाने लगे हैं। पर पढ़ाई का मतलब केवल अक्षर ज्ञान ही थोड़ी होता है नॉट नॉलेज विदआउट कॉलेज आखिर यह कहावत ऐसी ही थोड़ी बनी है। क्योंकि व्यवहारिक ज्ञान कोई पुस्तकों से थोड़ी सीखा जा सकता है और न ही इस का कोई पीरियड ही होता है और न ही कोई किताब है आखिर पढ़ाई के साथ-साथ व्यवहारिक ज्ञान तो कालेज जा कर ही सीखा जा सकता है, और इस के लिए असली नॉलेज तो कालेज जा कर ही सीखी जा सकती है। और कालेज में वैसे भी पढ़ने कौन जाता है। वहां तो बहुत सा टाइम तो एक दूसरे के कानों में खुसर- पुसर करते अधिक खर्च होता है, और क्लास में भी कौन सा सारा टाइम लेक्चर ही सुना जाता है अपितू लड़के-लड़कियां एक दूसरे को नजर बचा-बचा कर देखते रहते हैं। जैसे ही अध्यापक जी बोर्ड पर लिखना शुरू करते हैं वैसे ही आँखे भी चार होने लगती हैं।
इतना ही नहीं कॉलेज से घर आते-जाते भीड़ भरी बसों में दरवाजे की बीच में खड़े हो कर या लटक कर चलना भी कोई आसान काम नहीं है अपितु ओलम्पिक में गोल्ड मेडल जीतने से कम नहीं है और यदि इस का ओलम्पिक में मुकाबला होने लगे तो सारे मेडल हमारे होनहार स्टूडेंट ही ले कर आ जाएँ। और इतना ही नहीं यदि भीड़ भरी बस में आगे कोई लड़की या लड़का खड़ा हो और ड्राइवर उस समय अचानक ब्रेक लगा दे तक आगे वाली लड़की से टकराएं बिना रह जाना कोई आसान काम नहीं है। इस के लिए कर्मयोग की शिक्षा सीखनी पड़ती है और यह कर्मयोग की शिक्षा भीड़ भरी बसों में ही आ सकती है पर बसों में जाये कैसे जब सरकार ने कालेज ही बंद किए हुए हैं।
इतना ही नहीं कालेज के पार्क में खाली पीरियड में जब सहेलिए आपस में धीरे-धीरे होठों ही होठों में बाते करती हैं और बातें भी इतनी धीरे कि यदि वहां से हवा भी गुजर जाए तो न सुने वह व्यवहारिक ज्ञान कालेज जा कर ही मिल सकता है। बेशक फोन पर कितना भी बात कर लो पर जब तक पास में बैठ न बतिया ले तब तक कहाँ तसल्ली मिल सकती है क्योंकि कुछ बातें तो मुंह से और कुछ आँखों में ही की जा सकतीं हैं जो सीधे दिल में उतरती है और यह केवल पास-पास बैठ कर ही हो सकती हैं। इस लिए बिना कालेज जाए यह कैसे हो सकती हैं।
अब घर में वह बेचारी क्या बोले। पर उन से कोई यह नहीं पूछता कि क्या वह श्री मान जी अपना मास्क भी नहीं रख सकते हैं। मास्क न लगाने पर कोरोना
भला तूझे होगा या किसी और को होगा और यदि हो गया तो बहुत लोग खुश भी होंगे कि अच्छा हुआ अब तो साथी की प्रमोशन पक्की और तुम्हारा प्रमोशन तो रुकवा ही देंगे और वे लोग हो सकता है तुम्हे नौकरी से भी निकलवाने के लिए जोर लगाने लगे और वैसे भी कोरोना में कोई मिलने भी नहीं आने वाला और न ही कोई बताने वाला की दफ्तर में क्या चल रहा है। और सेहत भी तो अलग से खराब होगी। इस लिए भाई अपने मास्क का कभी अपने आप भी तो ख्याल रख लिया करो। हमेशा उस बेचारी के ही जिम्मे क्यों रहते हो।
आखिर वह क्या-क्या करे वह आप के साथ मास्क का भी ख्याल रखे और अपनी ड्रेस के अनुसार मास्क भी ढूंढें जो पता है कितना कठिन काम है क्योंकि औरत को हर चीज अपनी साड़ी से मैचिंग वाली ही चाहिए वह तो बस पति के मामले में ही समझौता कर लेती हैं नहीं तो हर चीज मैचिंग न हो तो बस पूछो मत इन के लिए कितनी बड़ी मुसीबत हो जाती है और जिस दिन मास्क मैचिंग न हो उस दिन तो कोई न कोई सहेली भी जरूर मिल ही जाती है और फिर तो वह भला ऐसा अवसर कब छोड़ती है और मास्क पुराण का पूरा पाठ किए बिना भला कहाँ मानती है और फिर साथ में सेल्फी लेने के लिए भी तो अड़ जाती है ताकि और सहेलियों को दिखा सके कि आप के पास मास्क भी मैचिंग का नहीं है। बेचारी के लिए कितनी सिरदर्दी है और तुम अपना मास्क भी नहीं संभाल सकते हो। यह तो स्त्री पर घोर अत्याचार की श्रेणी में ही आता है।
अब एक सिरदर्द हो तो बेचारी जैसे-तैसे सहन भी कर ले और मैनेज भी कर ले पर यहां तो जब से कोरोना की बीमारी आई है उसी दिन से समस्याओं की लिस्ट में रोज-रोज नई-नई समस्या जुड़ी जा रही है क्योंकि यहां किसी चीज पर कोई पाबंदी नहीं है जिस का जो मन करे वह वही करने और बताने लगता है पर उसे कोई न तो रोकता है और न ही टोकता है और सरकार को तो इस से कोई मतलब ही नहीं और वैसे भी भरत में तो प्रजातंत्र और आजादी के नाम पर कुछ ज्यादा ही छूट मिली हुई है इसी लिए लोग यू ट्यूब ,फेसबुक ,व्हाट्सअप और टीवी चैनलों पर जो मर्जी लिखते और बताते रहते हैं। हर दिन कोई न कोई नई-नई खोज गली मोहल्ले में होती ही रहती हैं।
इन खोजों में समय के अनुसार नुख्से और विशेष प्रकार की सलाह सम्मलित होती हैं। क्योंकि इन दिनों कोरोना तो पूरे विश्व में ही फ़ैल रहा है तो स्वाभाविक है आजकल कोरोना पर ही नुख्से और सलाह दिखाई दे रही हैं। और लोग उसे पढ़ कर ब्रह्म वाक्य मान कर घर में आदेश देते हैं। और ये सब जिम्मे पड़ता है श्री मती जी के कि अब यही काढ़ा रोज बनाया करो जो पहले बना रही थी। मैंने पढ़ा कि यह खतरनाक भी हो सकता है। और जो तुम ने कूट-पीट कर बनाया हुआ है उसे फेंक देना और यह नया वाला बना कर रख लेना। अब इनको इस से क्या मतलब की उस बेचारी ने उसे बनाने में कितनी मेहनत की थी बस तुम्हरी तो जुबान हिल गई कि उसे फेंक देना। और उस के जी से पूछना कि इतनी मंहगाई में वह भला उसे कैसे फेकेगी। आजकल क्या कोई भी चीज सस्ती है जो वह उसे आसानी से फेंक देगी। उस की मेहनत का तो आप को कोई अंदाजा ही नहीं है।
वह सारा काम करती है और आप उस पर रोज-रोज नए काम लादे जाते हैं। कभी सोचा है कि यदि इसे कुछ हो गया तो बच्चू लेने के देने पड़ जाऐंगे घर में रोटी मिलनी भी मुश्किल हो जाएगी। और तुम तो अपनी चाय भी नहीं बना पाओगे। फिर कैसे काम चलेगा। इस लिए जो काढ़ा बना रखा है वही पी लो जब उसे पी कर अभी तक कुछ नहीं हुआ तो आगे भी कुछ नहीं होगा और नया पी कर ही क्या पहलवान बन जाओगे। यह आयुष काढ़ा डाक्टरों सोच समझ कर बनाया है समझे न। और जो ये व्हाट्सअप और यूट्यूब पर नुख्से आते हैं डाक्टर नहीं बताता है इन्हे जो मर्जी आलतू- फालतू के लोग लिख-लिख कर लगते रहते हैं यानि जिन्हे कोई काम नहीं होता है और अपना चेहरा दिखाना होता है वे ही इस प्रकार के फालतू कामों में लगे रहते हैं और भिखारियों की भाँती लाइक मांगने की रट लगाए रहते हैं जैसे लाइक न हुआ प्रेमिका की किस हो गई। इस लिए कोरोना को सीरियसली लेना और इन नुख्सों के चक्कर में मत पड़ना कहीं लेने के देने न पड़ जाएँ।
पर यह काढ़ा बनाने का काम भी उसी के कामों की लिस्ट में जुड़ जायेगा। क्योंकि वह तो घर भर की सेवा के लिए ही तो है। पर यह काढ़ा भी बनाना कोई आसान काम तो है नहीं पानी बेशक कितना भी नाप कर रख लो परन्तु उस के बाद कोई न कोई ऐसा काम आ ही जाएगा किया तो वह काढ़ा उबलते-उबलते दो घूँट भी नहीं बचेगा अब इसे किस किस की नाक पर रखे, घर वाले को दे या बच्चों को पिलाये और सास ससुर तो पहले ही अपना-अपना गिलास ले कर पहले ही तैयार बैठे होते हैं कि कहीं भगवान कोरोना के कारण उन्हें न बुला ले। पर वह बेचारी इसे किस-किस को दे क्योंकि पड़ोसन को भी तो उसी समय आना था दही जमाने की के लिए खट्टा या जामन लेने और बस काढ़ा उबलते-उबलते रह गया दो घूँट। बेचारी का पूरा घंटा खराब कर गई क्योंकि उस का सासू पुराण फिर भी खत्म नहीं हुआ। वह तो गनीमत रही कि बच्चों ने अंदर आपस में मार- कुटाई कर नहीं की, नहीं तो भगोना और जल जाता।
चलो काढ़ा तो चूल्हे पर चढ़ा कर इतनी देर में कोई दूसरा काम देख लो। पर कोरोना के कारण उस बेचारी के जिम्मे तो हर काम दूगना तीनगुना हो गया है जहां पहले दो चार जोड़ी कपड़े धुलते थे अब तो सारा दिन कपड़े ही धोते रहो पूरा दिन अब तो कपड़े धोने में ही निकल जाता है हाथ दुखने लगते हैं और ऊपर से डिटर्जेंट पाउडर और साबुन का खर्च भी दुगना हो गया है पर आमदनी बढ़ने के बजाय घट रही है। पहले तो सुबह से शाम तक एक जोड़ी कपडे पहने रह सकते थे पर जब से कोरोना चला है तब से बार बाहर जाओ उतनी ही बार कपड़े बदलो और दूसरे पहनो। पर किया क्या जाये सब कुछ मंहगा होता जा रहा है और आमदनी कम और इसकी सिरदर्दी भी उसी बेचारी के जिम्मे हो गई क्योंकि जो घर के खर्च का पैसा मिलता था उसमें से तो साड़ी खरीदने के लिए दो पैसे बच भी जाते थे पर अब तो खर्चा भी कम मिलता है और पूरा भी नहीं पड़ता है उल्टा जो थोड़ा बहुतजोड़ा हुआ था वह भी खत्म हो रहा है। वह भी बेचारी क्या-क्या करे कोरोना ने अधिक परेशान बेचारी स्त्री को ही किया है पर कोई नारी वादी संघठन इस के लिए आवाज नहीं उठा रहा है।
(लेखक हरियाणा ग्रन्थ अकादमी के सदस्य हैं)

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