महिलाओं की सामाजिक स्थिति दावे तो हैं पर सुधार नहीं

अखिल त्रिपाठी

महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में नहीं आयी कमी
महिलाओं की मौत के मामलों में 30 से 40 प्रतिशत तक दहेज हत्या के कारण
शिक्षा से ही ग्रामीण क्षेत्रों में सुधार संभव

महिला सशक्तिकरण की आवाज हमेशा से उठती रही है और सरकार भी इस दिशा में काम करने का दावा करती है। पर आजादी के सात दशक बाद भी यदि हम पाते हैं कि स्थिति में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ है। यदि लोगों से पूछा जाए कि महिला सशक्तिकरण के लिए सरकारी कदमों की दशा और दिशा क्या है तो शायद कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिल सकेगा। ज्यादातर लोग महिलाओं की सामाजिक स्थिति में बदलाव तो चाहते हैं, मगर उसके लिए व्यक्तिगत जवाबदेही तय करने से कतराते हैं। ऐसे लोग अक्सर सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं को महिला सशक्तिकरण या महिला न्याय का पैमाना मान कर खुश हो जाते हैं। यह सही है कि सरकार ने काफी कुछ किया है फिर भी आये दिन हम ऐसी खबरें पढ़ते रहते हैं जो इस बात को प्रमाणित करती हैं कि सामाजिक स्तर पर महिलाओं की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है।

पिछले दिनों ऐसी कुछ खबरें आयी हैं जो महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों की पोल खोल देती हैं। विगत 5 अप्रैल को ऐसी ही एक खबर आयी जिसमें एक महिला की मौत से जुड़ी पुलिस जांच रिपोर्ट का जिक्र किया गया था। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि केरल के कोल्लम जिले के नागपोल्ली में स्थित तुशारा गांव में एक महिला को दहेज के लिए उसके ससुरालवालो ने भूख से तड़पाकर कर मार दिया। खबर के अनुसार महिला ने जब अस्पताल में अपनी अंतिम सांस ली तब उसका वजन केवल 20 किलो था। जाहिर है कि उसे कई दिन तक भूखा रखा गया था जिसके चलते वह हड्डियों का गट्ठर मात्र रह गयी थी। यह एक खबर ही यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि सरकार के तमाम दावों और योजनाओं के बाद भी महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार नहीं हुआ है।

महिलाओं पर लगातार हो रहे अत्याचार केरल जैसे राज्य में चौंकाने वाले हैं, जो शिक्षा में ऐतिहासिक बढ़त और प्रगतिशील लिंग व्यवहार के साथ सामाजिक विकास के मोर्चे पर हमेशा आगे की पंक्ति में खड़ा दिखाई पड़ता है। हाल ही में केरल राज्य से जुड़ा सबरीमाला विवाद काफी सुर्खियों में रहा था। न्यायालय के आदेश के बाद भी वहाँ के पुरूषों ने, जिनमें पुजारी और नेता भी शामिल थे, महिलाओं को मंदिर में जाने से रोका। इतना ही नहीं, मंदिर में जाने पर महिलाओं को परिवार से निकाल देने की धमकी तक दी गयी। राज्य की वामपंथी सरकार ने भी इस मामले में कदम उठाने में जो हिचक दिखाई उससे वास्तविक स्थिति का पता चलता है। दरअसल, धर्म एक ऐसा विषय है जिसमें हर सरकार का रवैया महिला विरोधी रहता है। केरल की घटनाएँ इकलौती नहीं हैं। देश के अन्य राज्यों से भी इस तरह की खबरें आये दिन आती रहती हैं। और हर बार सरकार का रवैया मामले को किसी तरह टालने का रहता है। देश में 1961 से लागू दहेज विरोधी कानून के बाद भी दहेज हत्याएँ रूकी नहीं हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरों के मुताबिक देश में महिलाओं की होने वाली मृत्यु के मामलों में 30 से 40 प्रतिशत तक मौत दहेज के कारण होती है। यानी एक तिहाई महिलाएँ आज भी दहेज प्रताड़ना का शिकार होती हैं। आश्चर्य की बात यह कि 1996 से लेकर 2016 तक के आंकड़े बताते हैं कि दस साल में इसमें कोई कमी नहीं आयी। इसी प्रकार देखें तो पिछले दस सालों में बच्चियों से लेकर महिलाओं तक के साथ होने वाले यौन अपराध तेजी से बढ़े हैं। इसके साथ ही कार्यस्थलों पर उनके साथ होने वाला भेदभाव भी कम नहीं हुआ है।

जाहिर है कि सरकार कानून बनाकर अपना पल्ला झाड़ लेती हैं जबकि महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सामाजिक स्तर पर पहल करने की जरूरत है। वर्तमान सरकार ने बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ नारा तो दिया परंतु इसका कितना असर हुआ, यह किसी से छुपा नहीं है। इस सबके बीच यदि कुछ अच्छा होता नजर आता है तो वह है महिलाओं में अपने प्रति होने वाले अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना। यौन अपराधों और अन्य भेदभाव के विरोध में महिलाओं ने जो एकजूटता दिखाई वह प्रशंसनीय है। इसका एक कारण शिक्षा का प्रसार है। हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति आज भी बदतर है पर वहाँ जिस तरह से बालिका शिक्षा का प्रसार हो रहा है उससे शायद आने वाले समय में हालात बदलें। इसके लिए एक तरफ सरकार को पहल करनी होगी तो दूसरी तरफ समाज के स्तर पर भी बदलाव लाना होगा। आज भी ग्रामीण समाजों में महिलाएँ दबी-कुचली हैं और जिस तरह का वहाँ सामाजिक वातावरण है उसमें उनके लिए आवाल उठा पाना भी संभव नहीं होता। यदि ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक बदलाव के लिए कोशिश की जाए तो स्थिति में तेजी से सुधार की उम्मीद की जा सकती है।

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