दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पूरे राज्य में मेट्रो और बस से सफर करने वाली सभी महिलाओं को नि:शुल्क यात्रा का तोहफा देने की घोषणा कर मुफ्तखोरी की राजनीति पर निहितार्थ की रोटियां सेंकने का काम शुरू कर दिया है। इस योजना को लागू करने में लगभग 800 करोड़ रुपये व्यय होंगे। हैरानी की बात यह है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के पहले आम आदमी पार्टी को महिलाओं की सुरक्षा की चिंता सताने लगी है। चार साल तक उसे दिल्ली की महिलाओं की याद नहीं आई लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद आम आदमी पार्टी को अपनी जमीन खिसकती नजर आ रही है, लिहाजा उसने महिलाओं को मुफ़तखोरी की आदत डालने वाला फैसला किया है। यही नहीं, यह लाभ आर्थिक तौर पर संपन्न और विपन्न सभी तरह की महिलाओं को देने की घोषणा की गई है ताकि महिलाओं के वोट बैंक को आम आदमी पार्टी के लिए सुरक्षित किया जा सके।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि भारत में मुफ्तखोरी की राजनीति ने हमारे समाज को खतरनाक स्थिति में खड़ा कर दिया है। विभिन्न राजनैतिक दल अपने राजनैतिक निहितार्थों को साधने के लिए सरकारी खजाने को दोनों हाथों से लुटा रहे हैं।
इसी तरीके से इसी साल तमिलनाडु सरकार ने पोंगल त्योहार पर हर राशनकार्ड धारक को हजार रुपये नकद उपहार देने की घोषणा की और मध्य प्रदेश की कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने किसानों का 70 हजार करोड़ रुपये का कर्ज माफ करने की घोषणा की थी। इन सभी निर्णयों से यह सवाल खड़ा होना स्वभाविक है कि आखिर यह लोकलुभावन वाली राजनीति कब तक चलती रहेगी? पोंगल पर हजार रुपये हर राशनकार्ड धारी को बांटने के मामले में तो तमिलनाडु उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप भी करना पड़ा था। अदालत ने कहा कि यह उपहार रेवड़ी की तरह हर किसी को न बांटा जाए। यह सिर्फ गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों को ही दिया जाए। मुफ्त में चीजें बांटने की समस्या सिर्फ दिल्ली, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश सरकार की नहीं है। जनता को मुफ्तखोरी की आदत डालने के लिए कमोवेश सभी छोटे-बड़े राजनैतिक दल दोषी रहे हैं।
यही नहीं, वर्ष 2015 में भी दिल्ली के विधानसभा चुनावों के दौरान आम आदमी पार्टी ने दिल्ली वासियों को नि:शुल्क पानी और बिजली देने की भी घोषणा की थी और उसने इसी दम पर 70 सीटों में से 67 पर कब्जा कर लिया था। इसी तरह से उत्तर प्रदेश के 2012 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने मुफ्त लैपटॉप बांटने और 35 साल से अधिक आयु के बेरोजगारों को 1000 रुपये मासिक भत्ता देने की घोषणा कर चुनाव में अपना परचम लहराया था। तमिलनाडु सरकार ने 2011 में राशनकार्ड धारियों को मुफ्त चावल वितरण की योजना शुरू की थी। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने वर्ष 2014 में किसानों एवं बुनकरों के कर्ज को माफ कर दिया। इसके अलावा उनकी सरकार ने विभिन्न त्योहारों में राशन के पैकेट मुफ्त में बांटे।
अगर देखा जाए तो भारतीय संविधान लोककल्याण की अवधारणा पर आधारित है। इसी आधार पर समाज के गरीब तबके के लोगों को हमारी सरकार सब्सिडी भी प्रदान करती है। वास्तविकता तो यह है कि हमारे देश की जनता राशन, बिजली, पानी, लैपटाप, स्मार्ट फोन आदि मुफ्त नहीं चाहती। देश की गरीब जनता को अगर कुछ चाहिए तो वह है, उचित दर पर बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सुविधाएं लेना चाहती है। उसे समुचित रोजगार की दरकार है न कि वह मुफ्त मे तनख्वाहें नहीं लेना चाहती।

उल्लेखनीय है कि जून 2016 में स्विटजरलैंड में वहां की तत्कालीन सरकार ने नागरिकों के बीच एक बेसिक इनकम गारंटी के मुद्दे पर जनमत संग्रह कराया था। जिसमें हर वयस्क नागरिक को बिना काम के भी लगभग डेढ़ लाख रुपये प्रतिमाह देने की पेशकश की गई थी। लेकिन जनमत संग्रह में वहां के 77 फीसदी नागरिकों ने मुफ्तखोरी की पेशकश को ठुकरा दिया था। वास्तविकता तो यह है कि किसी भी देश की जनता इस तरह की चीजें मुफ्त में नहीं लेना चाहती। लेकिन हमारे देश के सियासी दल जनता को मुफ्तखोरी का लती बनाने पर तुले हुए हैं। ऐसे में जनता को भी लगता है कि उनको स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार तो मिलना नहीं है जो भी मिल रहा है, उसे ही झटक लो।
अहम सवाल यह है कि केजरीवाल जी को अपने चार साल के कार्यकाल में महिलाओं की सुरक्षा की याद क्यों नहीं आई? चार साल तक महिलाओं की सुरक्षा को लेकर यह सवाल उठाए जाते रहे कि डीटीसी के सभी बसों को जीपीएस और सीसीटीवी कैमरों से जोड़ा जाना चाहिए लेकिन इस अवधि में कुछ नहीं किया गया, लेकिन जब विधानसभा चुनाव नजदीक आ गए तो केजरीवाल को याद आई कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए 40 हजार की जगह 2 लाख 80 हजार सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने चाहिए और उनको मेट्रो और बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा प्रदान की जानी चाहिए लेकिन मेरा मानना है कि जनता सब जानती है कि हिमायत कहां है और सियासत कहां?
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