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प्रधानमंत्री मोदी की केंद्र में सत्ता के सात साल पूरे होने से पहले लोकप्रियता में आई गिरावट

भारत के सबसे शक्तिशाली और लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सात साल पूरे होने जा रहे है। आज जनता के रुझानों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि कोविड के गंभीर संकट काल में भटकती और भूख से तड़पती ज़िंदगियों ने पीएम की लोकप्रियता पर गहरा असर डाल दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी के सामने जनता ने दीवार खड़ी कर दी हो। एक सर्वेक्षण के अनुसार, मोदी की लोकप्रियता 63 प्रतिशत से घटकर 38 प्रतिशत तक आ गई है, जबकि वैश्विक संगठन मॉर्निंग कंसल्ट के अनुसार, मई 2020 के 68 फीसदी से घटकर 33 फीसदी पर रही है। निराशा और संकट की भयावहता को देखते हुए ये निष्कर्ष आश्चर्यजनक नहीं हैं।
महामारी की दूसरी लहर के प्रबंधन में सरकारों ने टीकाकरण को एकमात्र रामबाण मान लिया है और वैक्सीन खरीद के प्रबंधन ने लाखों लोगों को कतार में खड़े होने पर विवश कर दिया है। निस्संदेह, पूरे भारत में लोगों के दुख और गुस्से में इसकी प्रतिक्रिया दिखती है। सर्वेक्षण के दौरान 10,000 वरिष्ठ लोगों से सवाल पूछे और उनके सुझाव लिए जिसमें स्पष्ट गहरा दुख और वर्तमान स्थितियों में सहायता के विकल्प नजर आ रहे हैं। नरेंद्र मोदी की वरीयता 64 फीसदी से घटकर 41 फीसदी पर आ गई है। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तरदाताओं की दूसरी पसंद लगभग 18 प्रतिशत ही प्रतीत हुई है। बताते चलें कि विपक्ष में दूसरे के दुख से खुश होने की जो भावना दिख रही है, वह हैरान करने वाली हैं। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की जीत के बाद विपक्षी दलों के ‘एक साथ आने’ को लेकर काफी अटकलें लगाई जा रही हैं। खैर ममता बनर्जी की लोकप्रियता सिर्फ तीन प्रतिशत से अधिक है और सभी उम्मीदवारों की कुल लोकप्रियता मोदी की तुलना में कम है। राहुल गांधी 11.6 प्रतिशत के साथ विपक्षी नेताओं की सूची में सबसे ऊपर हैं और अन्य इकाई अंकों की सदस्यता के मामले में सर्वश्रेष्ठ हैं। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि महागठबंधन बनने पर भी कुछ खास नहीं हो पाएगा-ऐसा कहने वालों का अनुपात आठ से 18 प्रतिशत तक बढ़ गया है। वास्तव में, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के नेताओं के उत्साह को उनकी मनचाही कल्पना के रूप में वर्णित किया जा सकता है। एक साहित्यकार ने बताया कि -‘सच्चा अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है; इसे हासिल करने से इन्कार करना है।’ जाहिर तौर पर यह तंज सत्ता प्रतिष्ठान को निशाना बनाकर किया गया था, लेकिन यह कांग्रेस पर भी लागू होता है। सच तो यह है कि कांग्रेस ने भी ज्ञान पाने से इन्कार कर दिया है-2014 में किया गया आत्मनिरीक्षण का वादा जल्द ही पुरातात्विक खुदाई का टैग हासिल कर सकता है। राजनीति का असली सच है कि कांग्रेस एक अखिल भारतीय संगठन है- इसने 2019 में 11.9 करोड़ वोट हासिल किए, भले ही उसने केवल 52 सीटें जीतीं। लेकिन इसे अपने संगठन की स्थिति को देखते हुए चुनावों और राज्यों में संघर्ष करना पड़ा है। बारिश पर निर्भर खेतों की तरह, पार्टी एक कार्यकर्ता को तभी अंकुरित करती है, जब सत्ता की वर्षा से सिंचित होती है। एक दृश्य नेतृत्व और संगठन के बिना यह पार्टी एक विचार बनकर रह गई है। हालांकि, काफी हद तक दिशाहीन विपक्ष की विफलताएं भाजपा के लिए जश्न का कारण नहीं हो सकती। पार्टी में चुनौती टिक नहीं सकती। अटल बिहारी वाजपेई को भी चुनौती ने घुटने पर खड़ा कर दिया था। मोदी जी के नेतृत्व में बीजेपी के नाम से जनता का रुझान घृणा में बदल रहा है। यकीनन देश की सत्ताधारी पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है। लोकप्रियता की रेटिंग इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि पार्टी को आगे महत्वपूर्ण राजनीतिक चुनौतियों का सामना करना है। वर्ष 2022 में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं, साथ ही पंजाब, गोवा, गुजरात और मणिपुर में भी। उत्तर प्रदेश में विपक्ष पर वर्चस्व बनाए रखना 2024 के चुनाव के लिए महत्वपूर्ण है। महामारी के प्रबंधन का प्रभाव बिहार और हाल ही में बंगाल में दिखा है। आपको असलियत गिरावट की वजह बता दें कि महामारी और आर्थिक गिरावट, विशेष रूप से रोजगार और छोटे व्यवसायों का पतन। सर्वेक्षण से पता चलता है कि उत्तरदाता अपने जीवन और देश की स्थिति के बारे में निराशावादी होते जा रहे हैं। उच्च न्यायालयों में मामलों की अधिकता सरकार में प्रतिभा की कमी, राज्य की क्षमता, बाबूराज और समिति राज की निरंतरता को दर्शाती है। अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि ‘कोई भी समस्या उसी चेतना से हल नहीं हो सकती, जिसने इसे जन्म दिया है।’ शासन अब भी सुस्त, संरचना और प्रणालियों में पुरातन और अक्षम है। बहुत कुछ एंबेसडर कारों की तरह, जो दशकों से अधिकारी राज का प्रतीक बना हुआ है। मोदी 2014 में परिवर्तनकारी बदलाव के वादे के साथ आए थे। न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन का आदर्श वाक्य अब भी सुधार की प्रतीक्षा कर रहा है।

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